सोइ रसना जो हरिगुन गावै / सूरदास
राग कान्हरा
सोइ रसना जो हरिगुन गावै।
नैननि की छवि यहै चतुरता जो मुकुंद मकरंदहिं धावै॥
निर्मल चित तौ सोई सांचो कृष्ण बिना जिहिं और न भावै।
स्रवननि की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि कथा सुधारस प्यावै॥
कर तैई जै स्यामहिं सेवैं, चरननि चलि बृन्दावन जावै।
सूरदास, जै यै बलि ताको, जो हरिजू सों प्रीति बढ़ावै॥
भावार्थ :- `हरि-परायण' होने में ही हरेक इंद्रिय की सार्थकता है, यही इस पद का सार है `नैननि की.....धावे' = नेत्रों को अप्रकट रूप से यहां भ्रमर बनाया गया है। उसी नैन रूपी मधुकर के सफल जीवन हैं, जो मुकुंदरूपी मकरंद अर्थात कृष्ण-छवि पराग का पान करने के लिए दौड़ते हैं।
शब्दार्थ :- रसना =जीभ, वाणी। छवि =शोभा। मकरंद =पराग। न भावै = अच्छा नहीं लगता
है। अधिकाई = बड़ाई, सार्थकता।