भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोचता हूँ / कुमार कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोचता हूँ क्या सीखा पृथ्वी की पाठशाला में
भरता रहा सपनों में तितलियों के रंग
नहीं बन पाई एक भी मनुष्य की तस्वीर
एक दिन खूबसूरत कपड़े पहनकर आए
रिश्ते, प्यार और विश्वास
मैंने खोल दिया दोनों हाथों से पूरा द्वार
पलक झपकते ही
वे चले गए चुपचाप बिना मिले
मैंने खटखटाये अनेक दरवाजे
वे नहीं मिले
न फिर से आए कभी घर में
सोचता हूँ
इनके बिना कौन बजाएगा घंटी पृथ्वी की पाठशाला में
कौन बदलेगा सूखे बांस को
खूबसूरत बांसुरी में।