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सोचते थे पखेरू आओ चलें कहीं उड़कर / सांवर दइया
Kavita Kosh से
सोचते थे पखेरू आओ चलें कहीं उड़कर।
पहली उड़ान भरते ही लगा, अच्छे थे घर पर।
यहां तो कोई किसी से बात ही नहीं करता,
कितने अच्छे थे वो लोग जो मिलते थे हंसकर।
बस अपने ही खातिर हो यह सुख भरी जिंदगी,
लगता है मर जायेंगे इस खुली हवा में घुटकर!
लगता है हर कोने में लगी है आग भारी,
जिसे देखो, कहता है रहना ज़रा संभलकर।
हर रोज नया उड़ानें भर क्या हो जायेंगे,
सभी सोचते हैं यहां माथे पर हाथ रखकर!