भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोये हैं गाँव अभी से / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
दूर बहुत जाना है
पथरीले पाँव अभी से
बर्फ-ढँके जंगल में
राहें हैं बेढंगी
चुप साधे पेड़ खड़े
शाखाएँ हैं नंगी
शाम अभी होनी है
सोये हैं गाँव अभी से
ज़हरीली झील एक
पार उसे करना है
फूलों की बस्ती के
घाट पर उतरना है
थके हुए डाँड
और टूट रही नाव अभी से