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सोरंगी / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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143.

प्रेम प्रगट भेल, भाजि भरम गेल, उर उपजेल अनुरागे, रस पागेलो।
तेहि मन मानै माया, कल न परत काया, भुलि गेल भूख पियासे, घर वासे लो॥
पचि गैलि पंडिताइ, चलि इमइलोँ चतुराइ, नीँद न ठलि दिन राती, न सोहती लो॥
परिहरि जति पँति, कुल करतुति भँति, बिसरलि बरन बडाई, प्रभुताई लो॥
जप तप योग जग, ऋधि सिधि करमति, कर्म धर्म कविलास, नहि आसेलो।
धरनि भिछुक भनि, प्रभु चिंतामनि, मिलहु प्रगट पट खोले, मुख बोले लो॥1॥

144.

मनरे तेँ हरि भजु अवर भरम तजु, सपन सकल संसारे, नहि सारे लो।
सुत, पितु, बंधु नारि, यह सँग दिन चारि, अंत बहुरि विलगाई, पछताई लो॥
परिजन हथि घोरे, इनहि कहत मोरे, चित्र लिखल पट देखी, तस लेखी लो॥
गरब करत देहि, हृदय समुझि लेहि, जल सँग पत पखाने, अनुमाने लो॥
वचोरि नरि मिथ घात, परिहरु चरु बात, होइ रहु विमल विरागी, अनुरागी लो॥
देइ देव सेव झुठि, जस मरकट मुठि, धरनि कहत समुझाई, दिन जाई लो॥2॥