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सोलह आने यकीन / नीता पोरवाल
Kavita Kosh से
खिड़कियों की झिर्रियो से झाँकते
धूल से अटे
लटकते-झूलते
मकड़ी के जाले से
विकृत, घिनौने, बेमानी रिश्ते
हटाने की कोशिश में
हाथ आता है तो बस
मकड़ियो का रेंगता-लिजलिजा स्पर्श
शिराओं को सुन्न करता
देखते ही देखते
सम्पूर्ण कोमल अहसासों को
हौले से निगलता
नहीं मायने कि
लिंग क्या?
हाँ, स्वभाव सम
आश्चर्यजनक
किन्तु शत प्रतिशत सत्य
और शेष
नोची-उधेड़ी
टीसती
लुहुलहान
खुरदुरी सतह
मकड़ियो का अस्तित्व
मुझ निरीह इंसान से
प्राचीन अवश्य रहा होगा
सोलह आने यकीन है मुझे