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सो रहीं हैं चेतनाएँ / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
समझकर भी
सो रहीं हैं चेतनाएँ
देख मानव
आज जंगल काँपते हैं
मेघ भी दो डेग
चलकर हाँफते हैं
लू सदृश चलने लगीं
माघी-हवाएँ
नदी का मुश्किल
समंदर तक पहुँचना
और सागर-ज्वार
का रह-रह उमड़ना
देखकर चुप-चाप
बैठीं हैं दिशाएँ
कंठ में है प्यास
उपवन जल रहा है
युग-युगों का जमा पर्वत
गल रहा है
पर तनिक ना स्वार्थ की
गलती शिलाएँ