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सौंदर्य / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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कांत रविकर-किरीट कमनीय,
अलंकृत ओस-युक्त मणि-माल,
विपुल स्वर्गीय विभूति-निकेत,
कुसुम-कुल-विलसित प्रात:काल।
उषा का जग-अनुरंजन राग,
दिग्वधू का विमुग्धकर हास,
पुरातन है, पर है अति दिव्य,
और है भव-सौंदर्य-विकास।
लोक का मूर्तिमान आनंद,
अवनितल परम अलौकिक लाल,
बहु विकच सुमन-समान प्रफुल्ल
विहँसता भोला-भाला बाल।
प्रतिदिवस के विकसे अरविंद,
तरु-निचय किसलय ललित ललाम,
नवल हैं, पर हैं रम्य नितांत,
वरन हैं अखिल-भुवन-अभिराम।
विश्व-जन-मोहन है सौंदर्य,
हृदयतल - अभिनंदन - आधार,
मधुरतम-मंजु सुधा-रस-सिक्त,
सरसता-युवती का शृंगार।
किसी जग ज्योतिमयी की ज्योति
इसी में लोचन सका विलोक;
इसी में मिलता है सब काल
लोक को सकल-लोक-आलोक।
किंतु उसका अनुपम प्रतिबिंब
कुछ हृदय-मलिन मुकुर में आज
नहीं प्रतिबिंबित होता अल्प,
मलिनता के हैं नाना व्याज।
सुनाता है कल वेणु-निनाद,
सुशोभित है कालिंदी-कूल;
ललित लहरें हैं नर्तनशील,
हँस रहे हैं मुख खोले फूल।
मत्तता छाई है सब ओर,
हो रहा है रस का संचार;
बरसते हैं सुर सुमन-समूह,
खुल गया है सुर-पुर का द्वार
कल्पना है यह अति कमनीय,
सुधा-सर की है रुचिर तरंग;
पर न होंगे कुछ हृदय विमुग्ध,
क्योंकि यह है प्राचीन प्रसंग;
हो रहा है अतीत संगीत,
छिड़ रहा है बहु मोहक तार;
बना है मुखर मुग्धता-मौन,
सुनाती है वीणा झंकार।
किंतु हैं कतिपय ऐसे कान,
नहीं है जिनको इनसे प्यार;
सरस को करता है रस-हीन
किसी छाया का क्षोभ अपार।
रूप रमणी का है रमणीय,
लोक-मोहकता का है सार;
है प्रकृति-भाल रुचिर सिंदूर
काम-कामुकता का आधार।
कलाधर कलित कांति अवलंब,
कुसुम-कुल-निधि है उसका हास;
जग सृजन रंजन का सर्वस्व
है वनजवदनी विविध विलास।
भावमय रचनाएँ हैं भूरि,
हुआ जिनमें इनका सुविकास;
किंतु कुछ रुचियाँ हैं प्रतिकूल,
उन्हें कहती हैं कुरुचि-निवास।
अलौकिक रस-लोलुप कुछ भृंग
गूँजते हैं करके मधु पान;
लाभ कर कतिपय नवल प्रसून
सज रहा है प्रमोद उद्यान।
कुछ विहग हो-हो विपुल विमुग्ध
गा रहे हैं गौरवमय राग;
उक्ति अनुपम प्यालों के मधय
छलक है रहा हृदय-अनुराग।
किंतु कुछ मानस हैं न प्रसन्न,
मोह से हो-होकर अभिभूत;
सकल भावों में लगी विलोक
न-जाने किस छाया की छूत।
उन्हीं का है यह अमधुर भाव,
जिन्हें है सहृदयता-अभिमान;
हो रहा है वंचित रस बोधा
रसिकता को सिकता अनुमान।
सुनाते फिरते हैं जो लोग
सत्य, शिव, सुंदर का शुभ राग;
वे करें क्यों आँखें कर बंद
विविध सुंदर भावों का त्याग।
अमंजुल उर का है यह मोह,
मानसिक रुज का है यह रोष,
बनेगा क्या मकरंद-विहीन
मधुरिमा-कांत कमल का कोष।
घुसे क्यों कलित कुसुम में कीट,
रहे क्यों अकलंकित न मयंक;
लाभ क्यों करे मलिन कल्लोल
पूत-सलिला सुरसरि का अंक।
कंटकित सुमन-समूह-मरंद
पान करता है मुग्ध मिलिंद;
कहीं भी मिले क्यों न सौंदर्य,
तजे क्यों उसको सहृदय वृंद?