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सौदा-ए-सज्दा शाम ओ सहर मेरे सर में है / रंजूर अज़ीमाबादी

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सौदा-ए-सज्दा शाम ओ सहर मेरे सर में है
ऐ बुत कशिश कुछ ऐसी तिरे संग-ए-दर में है

मैं कब हूँ ये मिरा तन बे-जाँ हज़र में है
रूह-ए-रवाँ-ए-क़ालिब-ए-तन तो सफ़र में है

ये एक असर तो अदविया-ए-चारागर में है
शिद्दत अब और भी मेरे दर्द-ए-जिगर में है

सौदा-ए-इश्क़ ज़ुल्फ़-ए-सियह जिस के सर में है
कब मुतलक़ इम्तियाज़ उसे नफ़ा ओ ज़रर में है

क्या आएगा किसी बुत-ए-शीरीं-दहन पे दिल
क्यूँ मीठा मीठा दर्द हमारे जिगर में है

छेड़ा मुझे कि नौ का तूफ़ाँ बपा हुआ
इक बहर-ए-अश्क बंद मिरी चश्म-ए-तर में है

पहुँचा किसी को सदमा कि हम लोटने लगे
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है

नोक-ए-मिज़ा का रहने लगा दिल में फिर ख़याल
शिद्दत की टीस फिर मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर में है

सौदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार में है दर्द-ए-सर ज़रूर
इक ख़ास लुत्फ़ भी मगर इस दर्द-ए-सर में

मेरा ये नख़्ल-ए-दिल भी है आज़ाद मिस्ल-ए-सर्व
गुल इस शजर में है न समर इस शजर में है

चाहे तो ला-मकाँ की भी ले आए ये ख़बर
ये ज़ोर ताएर-ए-दिल-ए-बे-बाल-ओ-पर में है

दुश्नाम से भी यार की आती है बू-ए-लुत्फ़
कुछ शक नहीं कि ख़ैर निहाँ उस के शर में है

कुछ शक नहीं कि क़ुर्ब-ए-क़यामत की है दलील
ये फ़ित्ना ओ फ़साद कि अब बहर ओ बर में है

हो उस से मेरे दीदा-ए-तर का मुक़ाबला
‘रजूंर’ इस की ताब कहाँ अब्र-ए-तर में है