सौन्दर्य-बोध / महेश सन्तोषी
कल तुमने जब अपनी मेंहदी रची हथेलियाँ मुझे
पहले देर से, फिर पास दिखलाईं,
मैंने उन्हें आँखों से भी सम्मनित किया, ओठों से भी
एक चुम्बन हाथ का, दूसरा स्पर्श का,
मुझे लगा ऐसे ही दृश्यों और स्पर्शों से कभी
जन्मा होगा वह सौन्दर्य बोध!
जो एक सामयिक आनन्द को,
आनन्द की शाश्वत अनुभूति में बदल देता है,
यों तो कोई भी सौन्दर्य स्थायी नहीं होता,
पर किसी सौन्दर्य का बोध तो स्थायी हो ही सकता है!
शायद कभी ऐसे ही
सहस्रों मेंहदी रची हथेलियों ने,
किसी रचयिता को घेर लिया होगा,
अनगिन कुमुदनियों के अंगों पर,
रची हथेलियों से वह, इतना अभिभूत हुआ होगा,
कि उसने सौन्दर्य की अनुभूति का
एक और अध्याय लिख दिया होगा,
जो अभी, आज तक अधूरा है
कोई भी रचयिता इसे अभी तक पूरा नहीं कर सका,
रंगों, अंगों, दृश्यों और स्पर्शों से अन्त तक आच्छादित,
फिर भी मेंहदी रची हथेलियों-सा
आधा छिपा, आधा प्रकाशित!