सौ सुखों से सौ गुना बढ़कर / राजकुमार कुंभज
दुख का एक पल
सौ सुखों से सौ गुना बढ़कर
सौ मील दूर खड़ा है
दुख का कद सुख से बहुत बड़ा है
क्योंकि दुख ही साफ-सफाई करता है सुख की
तो कैसे मिलता, कहाँ से मिलता
आग में तपकर खरा सोना होने का सुख ?
दुख तपाता है
दुख सताता है
दुख ही है जो गुनगुनाता है जीवन
दुख ही बनाता है आदमी को लोहा
एक ऐसा लोहा
कि ले सके लोहे से लोहा
आदमी के भीतर का लोहा बड़ा होता है
ये वही लोहा होता है
जो किसी भी आतताई की तोपों के ख़िलाफ़
कहीं भी खड़ा होता है
दुख है तो आग है
आग है तो दुख है
जो भीतर ही भीतर सुरंग की तरह
किंतु अदृश्य
पकता लोहा
दुख का एक पल
सौ सुखों से सौ गुना बढ़कर
सौ मील दूर खड़ा है
दुख का कद सुख से बहुत बड़ा है
सुख सोचिए तो नाश्ते में आलूबड़ा है
और दुख है कि हीरे जैसा जड़ा है
कुछ इसलिए भी सुख नहीं दुख सोचिए
दुख ही सिखाता है मनुष्य होना ।