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स्त्री, तुम स्त्री मत होना / अरुणिमा अरुण कमल

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क्यों नहीं भूलतीं भावुक और मासूम होना,
सीख लो तुम, कुछ अपने लिए जीना!
स्त्री, तुम स्त्री मत होना!

मत बनो दीवार स्तंभों के बीच की
क्यों चाहती हो दबाव झेलना
मत समझो कि यह छत गिर जाएगा
तुम्हारे सहारे के बिना
सीख लो तुम भी
अब अपनी घर का छत होना !
स्त्री, तुम स्त्री मत होना !

जिम्मेदारियाँ कब तक
तुम ही उठाओगी,
अपनी भावुकता से
कब बाहर आओगी,
कर्तव्यों के बोझ को छोड़ दो ढोना,
छोड़ दो अब दूसरों की आदत होना !
स्त्री, तुम स्त्री मत होना !

मत बनो इतनी नाज़ुक कि
कोई भी, कभी भी खेल जाए
कहीं गुमनाम अंधेरे में
जब चाहे धकेल जाए,
पंखुडियों की तरह बिखर न जाओ कहीं
सीख लो तुम स्वयं अपनी ताकत होना !
स्त्री, तुम स्त्री मत होना!

परंपरा, संस्कार का बोझ मत लादो,
स्वयं की इच्छाओं को भी थोड़ी जगह दो
मौक़ा दो एक बार पिता को,
बच्चों को कि वे निर्भरता त्यागें
अपने घर की स्त्रियों के लिए थोड़ा वे भी जागें,
सीख लो तुम भी उन्मुक्त होना!
स्त्री, तुम स्त्री मत होना!