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स्त्री-पुरुष / प्रतिभा सिंह

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पुरुष ने कहा
मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ
इसलिए तुम भी प्रेम करो
तब स्त्री ने कहा
प्रेमिका होना और पत्नी बन जाने में अंतर है
प्रेम दास नहीं जो मजबूर होकर सिर झुका दे

पुरुष ने कहा
तुम्हारा अहंकार तुम्हें डूबा देगा
तब स्त्री ने कहा
इस नश्वर शरीर पर अहंकार कैसा

पुरुष ने कहा
तुम जानती नहीं हो
मैं हजारों का स्वप्न हूँ
किन्तु तुम्हारी वास्तविकता होना चाहता

 स्त्री ने कहा
किन्तु मेरी ही क्यों
तब पुरुष ने कहा
क्योंकि तुम मेरे लिए विशेष हो
और जीवन का आधार भी।

अबकी स्त्री कुछ उदार हुई
यह सोचकर सकुचाई और खुद को
निहारकर दर्पण में थोड़ा-सा लजाई
किन्तु पग फिर भी नहीं बढ़ाया

तब पुरुष ने कहा
तुम विश्वास कर सकती हो मुझपर
जीवन की आखिरी सांस तुम्हारे नाम
और रक्त की आखिरी बून्द
तुम्हारे मान पर न्योछावर होगी

अबकी स्त्री थोड़ी सहज हुई
वह प्रेम के पंख पर सवार होकर
आँचल में तितलियों की चंचलता समेटकर
उड़ती चली आई अपने स्वप्नपुरुष के पास

किन्तु शीघ्र ही पुरुष का प्रेम
वासनात्मक हो गया
जबकि स्त्री का प्रेम पूजा में परिवर्तित हुआ
और वह हो गई प्रेमिका से साधिका

किन्तु स्त्री ने देखा
उसके समर्पण को पुरुष ने
दासत्व समझ लिया
इसलिए वह और अधिक अहंकारी हो गया
तब स्त्री दुःखी होकर चुप रहने लगी

फिर एक दिन पुरुष ने उसे देखा
बिल्कुल उदास, मौन साधना में
उसने कहा
मेरा विस्मरण कर परपुरुष की आकांक्षी हो
सहज ही आकर्षित हो जाती हो
क्योंकि तुम चरित्रहीन हो।

स्त्री ने स्वयं के लिए
चरित्रहीन शब्द प्रथम बार सुना था
वह अचंभित हुई
उस पुरुष को देखकर जिसने उसे कहा था कभी
तुम विशेष हो मेरे लिए...
बहुत देर बाद उसे समझ आया
की वह ठगी गई है बड़ी सहजता से।
...
पुरुष हंस रहा था दूर से देखकर
उसकी छटपटाहट
जबकि उसने खुद को समेट लिया पुनः
घर की चहारदीवारी में
ताकि मिल सके पुरुष से उसे
फिर से चरित्र प्रमाणपत्र।