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स्त्री का सहोदर / गीता शर्मा बित्थारिया

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स्त्री का सहोदर होता है भय
जो रहता है उसके साथ साथ जीवन भर साये की तरह
उसी में छुपा रहता हैं यदा कदा ये निकल आता है बाहर
और चिपक जाता है उसके मुंह पर ना दिन देखता है ना रात
वो होता है हर उस जगह जहां कोई और नहीं है उसके साथ
वो उस पर हावी होता है जब भी पाता है उसे निपट अकेली

ये सहोदरा साथ साथ ही चल रहा होता है धुकधुकी बनकर
जब वो झूलती है बिन मन्नत वाला पालना
जाती है स्कूल के सपाट मैदान पर भीड़ भरे हाट बाज़ार में
चलती हूई सड़को पर खेत खलिहान खदानों में
रात के अँधेरे में भरी हुई बस में अकेली टैक्सी
खाली सी राह पर बन्द कमरे में सुनसान गली केबिन में
हर जगह हर कहीं

ये भय पीछा करते करते घुस आता उसके साथ
उसके घर में और बन जाता है
जोर जोर से दरवाजा पीटते सूदखोर की आवाज
दिनभर की मेहनत की कमाई छुड़ा लेने वाले हाथ
शराब पीकर पैदा होती कमजोर ताकत के आघात
यदास्तिथीवाद के लिये घर में भरे जाने वाले हुंकार
समर्पण के बदले मिले गहनों की फीकी चमक
समझौता परस्त सोच की माखौल उड़ाती क्रूर हंसी

सहोदर वहीं होता है
जब वो स्वयं चुन लेती है अपने लिये कोई विजातीय वर
या व्याह दी गई है बिना दहेज किसी धन लोलुप के साथ
जब भी मुंह खोलती है सच बताने को
उसके गले में अटका होता है ये उसकी चुप्पी बन कर

अधिकारी के अनैतिक प्रस्ताव अधीनस्थ का घायल अहं उपहास
सहकर्मी के भद्दे मजाक दोस्तों के बेमानी उपहार
रिश्तेदारों के अनचाहे स्पर्श ठेकेदारों की सशर्त मंजूर मजूरी
अजनबियों की देह भेदती आँख
शिकार सूंघती हुई भटकती तलाश
बिन मांगी सौगात की आड़ लार टपकाती वासना
अकेली पाकर होते हैं किसी स्त्री के आस पास

ये भय गहरा जाता है उसकी घिग्घी बन जाता है
उसका ये सहजात
जब दुष्कर्म और हिंसा बनते हैं अखब़ार की सुर्खियां
वो डरती अपनी अकेली पीछे छूट गयी
बेटी माँ बहन सहेली और अपनी जैसी हर स्त्री के लिए
सच कहूं तो हर स्त्री ने कई बार कस के पकड़ा है इसका हाथ

लेकिन स्त्री का भय भी डरता है जब भी कोई
बन जाता है उसका साहस जब भी कोई खड़ा हो जाता
उसके और उसके भय के मध्य
अपनी आंखो में उसके सम्मान के साथ
जिसकी उपस्थिति स्त्री को भयभीत नहीं करती
सुरक्षा की आश्वस्ति होती है कोई ऐसा जिसे पता होते हैं
उसके भय के कारण

पर ये सहोदर चिपका बैठा है मन के किसी कोने कुचाले में
अभी भी कुण्डली मार कर
हर स्त्री को जन्म के साथ जन्मे सहजात भय से
स्वयं लड़ना होता है एक युद्घ अपनी
मुक्ति और स्वतंत्रता के लिए
जब इसकी प्रतिछाया उसके खुद के व्यतित्व से भी
बड़ी हो जाती है विजयी स्त्रियाँ उतार फेंकती है
अपनी लिजलिजी केंचुली हो जाती हैं स्वतंत्र
अपने पूरे स्वाभिमान आत्म विश्वास के साथ

वो बता देती है छटपटाते मरणासन्न
अपने इस जुडावां सहोदर के साथ ही पूरी दुनिया को
कि स्त्रियाँ डरपोक नहीं होती
डरती है क्यूंकि वो आदमखोर नहीं

ओ मेरी माई तू बस कभी मत जन्म देना मेरे साथ
इस सहोदर को आज के बाद
अब साहस ही मेरा सपनों का साथी है
मैं नापूंगी नभ की उँचाई और सागर की गहराई
इस सहोदर भय के बिना
कर लूंगी दुनिया मुट्ठी में

हे मां दुर्गे
हम सब के भय का मर्दन कर दे
अपनी वंशजा
हर स्त्री में तू शक्ति पुंज भर दे।