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स्त्री की मूर्ति / अनिल मिश्र

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छेनी की लगातार पड़ती चोट से
पत्थर के अन्दर थोड़ी-थोड़ी झलकने लगी है मूर्ति
नाक उभर आयी है, सीना उभर रहा है
और गालों पर शर्म सिहरने लगी है
नियति के अभिशाप से अनाम अरूप हो गयी
आकृति को रूप और नाम मिलने वाला है

होंठों से बारीक-सी परत हटाकर
मुस्कान उभारने की कोशिश में लगा कलाकार
बीड़ी सुलगाता है
और देर तक आँखें बन्द किये खो जाता है कहीं
वह उठकर पत्थर को इस तरह देखता है
जैसे उसे दिख गया हो पीछे कोई जंगल
या थोड़ा-सा आसमान
जैसे रेशमी परदे थोड़ा परे हटाता पा लिया हो
समय का अलौकिक क्षण

उसके हाथों में छेनी शास्त्रीय नृत्य कर रही है
जैसे वह फूलों से पराग लेकर दिशाओं में घोल रहा हो
वह देश के विस्तार और समय की सीमाओं को लाँघता जाता है
आह! कितनी तड़प है उन हाथों में
न ऐसे बादल कभी धरती पर बरसे
न कभी ऐसी हवा चली
अनन्त कोशिकाओं की अनन्त संरचनाओं का तरल प्रवाह
जीवन और मृत्यु के दो ध्रुवों के बीच निरन्तर होता हुआ

कलाकर के हाथों से टूटता जाता है प्रलय का तिलिस्म
नयी दिशाएँ नये पथ प्राणों की चमकती नयी धार
बन्धनों को काट देने के लिए
मूर्ति की अप्रतिम सुन्दर स्त्री के
लास और हास में छिपा ले गया है कलाकार
उसके पीछे का अंधेरा
जैसे अपनी तस्वीर खिंचाते समय स्त्रियाँ बरबस लाती हैं
होंठों पर मुस्कान
परिवार की उपेक्षा और समाज की अपेक्षा के दायरे में
सदियों से खोजती अपनी और सिर्फ़ अपनी जगह

अभी जैसे बोल पड़ेगी मूर्ति
पत्थर की सीमाओं को तोड़ती
फिर अपने पत्थर में समाती
और उस विवशता को समझती
कि नृत्य के लिये ज़रूरी हैं भंगिमाएँ
एक पैर का हवा में उठा होना
धूप छाँह बारिश तूफ़ान दिन रात
देह के सवालों से निकलकर विचार और कला का पर्यटन
और कभी न भूलना कि वह एक मूर्ति है स्त्री की