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स्त्री प्रश्न / शैलेन्द्र चौहान

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क्या चाहती है एक स्त्री
अन्य स्त्रियों से
सिमोन द बोउआ, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा

जो चाहती है स्त्रियों से वह
किसी संतरे के खोल के भीतर की
फाँकों की तरह की अपेक्षा तो नहीं?

वे खट्टी-मीठी फाँकें जिन्हें हम
खा सकें आनंद से
किसी स्त्रीवादी उस पुरुष की तरह
जिसे स्त्री-मुक्ति की आड़ में
नज़र आता है बस देह का भूगोल

कोई संपादक
अशोभन छेड़छाड़ करता स्त्रियों से
ढेरों लच्छेदार संपादकीय लिखकर
छूट पा लेता है स्त्री शोषण
और अश्लीलता के विरुद्ध

स्त्री-शरीर के सुंदर होने की व्यावसायिक
नुमाइशों और प्रतियोगिताओं में
गरीब बच्चों और भूखों के लिए
सहृदय होतीं सुंदरियाँ

मदर टेरेसा को आदर्श मानती हुईं
हॉलीवुड से वॉलीवुड तक
पुरुषों की अपेक्षा आधे दामों में
अभिनीत करती हैं खुशी से
पुरुष-दासता की अनंत भूमिकाएँ

नायक, खलनायक, जोकर
नेता, अपराधी, अंडरवर्ल्ड
और संपादक के दिशा-निर्देशन में
मुक्ति के नाम पर

क्या यही चाहती है कोई स्त्री
पुरुषों से
जो पुरुष चाहते हैं स्त्रियों से

आखि़र क्यों नहीं चाहने देते पुरुष
एक स्त्री को, अन्य स्त्रियों से
जो चाहना चाहती हैं वह
सिमोन द बोउआ, प्रभा खेतान और
मैत्रेयी पुष्पा की तरह?

सनक जाने की खबर

मुड़ जाते हैं पैर
अर्धचंद्र की तरह
जैसे हो गया हो
नारू रोग

बोझिल होती ज़िंदगी
पनपती कुंठाएँ
टपकने लगता बुढ़ापा असमय
मन और शरीर से

कभी याद आतीं
बेतरतीब बातें
कभी भूलतीं
सुबह-शाम की स्मृतियाँ भी

मन नहीं होता
कुछ करने का ठीक से
घर, बाहर अक्सर
हो जाती तक़रार

छीजता है आत्मविश्वास
जब नहीं होती
सहजता संबंधों में

कभी किसी बात का
सहज कर लेना यक़ीन
कभी बात-बात में
टटोलता कि सही क्या है

झिड़कता साथियों को
खीजता अपनी असमर्थता पर
कोसता ज़माने को

सनक गया है
कहते लोग अक्सर
चल देते मुँह फेरकर।