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स्त्री मुस्कराई / पद्मजा शर्मा
Kavita Kosh से
कोई चाहता है उसे, सुनते ही
स्त्री ने पल्लू लिया सिर पर और मुस्कराई
पहले स्त्री के पाँव थे कमज़ोर
चल नहीं पाती थी ठीक से ज़मीन पर
अब भरने लगी है उड़ानें ऊँची-ऊँची
पहले स्त्री रहती थी काम के बोझ से दोहरी
अब फहराने लगी है तिरंगे-सी
घर के आकाश में
पहले बात-बे-बात रो पड़ती थी
अब बात-बात पर हँसने लगी है स्त्री
कुछ दिन पहले तक
किया करती थी बातें मरने की
अब जीवन जीने लगी है स्त्री
पहले चाह नहीं थी कलियों की
अब खिलने लगी है ख़ुद फूलों-सी
स्त्री।