भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्थगन के बाद / संजय कुंदन
Kavita Kosh से
अचानक जमा होने लगते हैं रंगीन बादल
दिखाई पड़ते हैं कुछ प्रवासी पक्षी पंख फैलाए
एक नया मौसम उतरता है
ज़िन्दगी के एक ऐसे मोड़ पर
जब उकताहट और खीझ से लथपथ
आदमी नाक की सीध में चल रहा होता है
ख़ुद को घसीटते हुए
एक अधूरी प्रेमकथा में
फिर से लौटती है रोशनी
कुछ पुराने पन्ने लहलहा उठते हैं
फिर वहीं से सब कुछ शुरू होता है
जहाँ कुछ कहते-कहते काँप गए थे होंठ
और बढ़ते-बढ़ते रह गए थे हाथ
हवा अपने पैरों में बाँधने ही वाली थी घुँघरू
ज़मीन को छूने ही वाली थीं कुछ बूंदें
ख़त्म कुछ भी नहीं होता
स्थगन के बाद
न जाने कितनी बार जीवन लौटता है
इसी तरह अपनी कौंध के साथ ।