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स्थगन / मनोज कुमार झा

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जेठ की धहधह दुपहरिया में
जब पाँव के नीचे की ज़मीन से पानी खिसक जाता है
चटपटाती जीभ ब्रह्माण्ड को घिसती है
कतरा-कतरा पानी के लिए
सभी लालसाओं को देह में बाँध
सभी जिज्ञासाओं को स्थगित करते हुए
पृथ्वी से बड़ा लगता है गछपक्कू आम
जहाँ बचा रहता है कण्ठ भीगने भर पानी
जीभ भीगने भर स्वाद
और पुतली भीगने भर जगत
चूल्हे की अगली धधक के लिए पत्ता खररती
पूरे मास की जिह्वल स्त्री अधखाए आम का कट्टा लेते हुए
गर्भस्थ शिशु का माथा सहला
सुग्गे के भाग्य पर विचार करती है
शिशु की कोशिकाओं की आदिम नदियों में
आम का रस चूता है
और उसकी आँखें खुलती जाती हैं उस दुनिया की तरफ़
जहाँ सर्वाधिक स्थान छेक रखा है
जीवन को अगली साँस तक
पार लगा पाने की इच्छाओं ने

माथे के ऊपर से अभी-अभी गुज़रा वायुयान
                   गुज़रने का शोर करते हुए
ताका उत्कण्ठित स्त्री ने
             आदतन ठीक किया पल्लू जिसे फिर गिर पड़ना था
बढ़ी तो थीं आँखें आसमान तक जाने को
           पर चित्त ने धर लिया अधखाया आम
और वक़्त होता तो कहता कोई
           शिशु चन्द्र ने खोला है मुँह
           तरल चाँदनी चू रही है
       अभी तो सारी सृष्टि सुग्गे की चोंच में
           कम्पाऽयमाऽन ।