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स्थगित / विवेक निराला

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लोग जहाँ-तहाँ रुक गए
बन्द हुआ
ईश्वर का सारा रोज़गार।

न नदियों में प्रवाह रह गया
न ज्वालामुखी में दाह
एक कराह भी थम गई ।

प्रदक्षिणा दक्षिण में ठहर गई
और अवाम के लिए
तय बाँये रास्ते पर
बड़े गड्ढे बन चुके हैं ।

एक ही भभकती लालटेन
अपने शीशे के और काले होते जाने पर
सिर धुनती निष्प्रभ पड़ी है ।

क्षण भर के लिए
आसमान से कड़की और चमकी
विद्युत् में रथच्युत योद्धा
लपक कर लापता हुए ।

जीवन अब भी अपठित है
मृत्यु अलिखित
समय अभी स्थगित ।