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स्याम! मेरी एकहुँ नाहिं बनी / स्वामी सनातनदेव
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राग सूहा-विलावल, ताल दीपचन्दी 27.9.1974
स्याम! मेरी एकहुँ नाहिं बनी।
भयो न मनहूँ अमन, न पाई तुव पद-प्रीति-मनी॥
गयी न चंचलताई मन की, मिटी न काम-कनी।
ना उरमें तुव पद-पंकज की पावनि प्रीति जनी॥1॥
दरस-परस बिनु हूँ या उरकी भई न व्यथा घनी।
सपने हूँ नहिं प्राननार्थ! तव छबिकी छटा छनी॥2॥
विलखत ही बीतहिं निसि-वासर, मिलत न एक कनी।
जान न परत बातक छु प्रीतम! का तुम हिये ठनी॥3॥
चहों न और कोउ रिधि-सिधि मैं, जो कछु बई लुनी।
पै तुव दरस-परस बिनु प्यारे! यह वय वृथा बनी॥4॥
कब लौं यों निबहैगी प्रीतम! हो तुम कृपा-धनी।
फिर काहे या दीन-हीन पै यह सूमई ठनी॥5॥
शब्दार्थ
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