स्याह / शिरीष कुमार मौर्य
स्याह समय के गाल पर है
तिल की तरह नहीं
दाग़ की तरह
ग़लत दिमाग़ों के उजाले में है
राह में है उसे ढाँकता हुआ
दाईं ओर से आगे निकलकर भागता हुआ
कुछ बर्बर मानव-समूह संगठन बन गए हैं
उनके विधान में है स्याह
घर-गाँव की याद आती है तो याद आता है
सड़ी हुई सामन्ती शान में है
परिजनों के बर्ताव में
मण्डी में विपन्न सब्ज़ी वाले से लगातार हो मोल-भाव में वह है
गहराती रात में उतना नहीं
उसकी अकादमिक व्याख्याओं में है
जनता के नाम पर क़ायम हुई
व्यवस्थाओं में है
अनन्त उसके बसेरे
एक लगभग कविता आख़िर कितने कोने घेरे
मैं एक कोने में बैठ कर
स्याह को कोसता भर नहीं रह सकता
उजाले की आँखें कहाँ-कहाँ बन्द है
यह देखना भी मेरा ही काम है
इस नितान्त अपर्याप्त लेखे में
कवि की आँखों के नीचे वह है
वहाँ उसका होना
न भुलाया जा सकने वाला इतिहास है
और फ़िलहाल
उसे मिटाए जाने की कोई ज़रूरत भी नहीं है