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स्रवननि भरि निज गिरा मनोहर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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स्रवननि भरि निज गिरा मनोहर, मधु मुरली की तान।
सुनन न दै कछु और सद, नित बहिरे कीन्हे कान॥
लिपट्यौ रहै सदा तन सौं मम, रह्यौ न कछु बिबधान।
अन्य परस की स्मृति न रही कछु, भयौ चिा इकतान॥
अँखियन की पुतरिन में मेरे निसि-दिन रह्यौ समाय।
दैखन दै न और कछु कबहूँ, एकै रूप रमाय॥
रसना बनी नित्य नव रसिका चाखत चारु प्रसाद।
मिटे सकल परलोक-लोक के खारे-मीठे स्वाद॥
अंग-सुगंध नासिका राची, मिटी सकल मधुबास।
भई प्रमा, गई अग-जग की सकल सुबास-कुबास॥
मन में भरि दीन्ही मोहन निज मुनि-मोहनि मुसकान।
चिा कर्यौ चिंतन-रत चिन्मय चारु चरन छबिमान॥
दई डुबाय बुद्धि रस-सागर, उछरन की नहिं बात।
आय मिल्यौ चेतन में मोहन, भयौ एक संघात॥