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स्वतंत्र्योत्तर भारत / शलभ श्रीराम सिंह
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बादल तो आ गए
पानी बरसा गए
लेकिन यह क्या हुआ ? धानों के —
खिले हुए मुखड़े मुरझा गए !
हवा चली — शाखों से अनगिन पत्ते बिछुड़े !
बैठे बगुले उड़े ।
लेकिन यह क्या हुआ ? पोखर तीरे आकर —
डैने छितरा गए !
बादल तो आ गए...!
दूब हुलस कर विहँसी — जलने के दिन गए !
सूरज की आँख बचा — ईंट की ओट में
निकलने के दिन गए !
लेकिन यह क्या हुआ ? पानी को छूते ही
अँखुए पियरा गए...!
निरवहिनों ने समझा — गीतों के दिन हुए !
पेंगों के पल हुए — कजरी के छिन हुए !
लेकिन यह क्या हुआ ? आपस में
सब के सब झूले टकरा गए !
बादल तो आ गए...।