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स्वतन्त्रता की रजत-जयन्ती और एक शहीद की माँ / श्यामनन्दन किशोर

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बचपन कि जवानी कि बुढ़ापा यारों,
कोई तो बता दे कि शहादत की उमर क्या है?

जो कि पीने के वास्ते ही हुए हैं पैदा-
उनकी खातिर यह अमृत, यह जहर क्या है?

जो कि मरने के लिए सिर्फ यहाँ जीते हैं,
उनके लिए मुकुट क्या, कफ़न क्या है?

जो कि दो घड़ी को बहके-बहके चले जाते हैं,
उनको ये वीरान क्या, चमन क्या है?

जो कि देने के लिए सिर्फ यहाँ आये हैं,
उनके लिए ये तूफान, ये कहर क्या है?

जो कि सब कुछ लुटा चुपके चले जाते हैं,
उनके लिए कोई किस्सा, कोई बहर क्या है?

कीमत है शहादत की बड़ी या छोटी,
यह तो खुदगर्ज जमाना ही बता सकता है।

गुरवत में मजेदार कितनी आजादी,
हल्दीघाटी का यह राणा ही बता सकता है।

मजा है क्या बेमोल सिर कटाने का,
वह कोई देश का दीवाना बता सकता है।

फाँसी पर झूल के भी क्या हँसने का मजा,
यह तो भगतसिंह का अफसाना बता सकता है।

ऐसे तो हर औरत ही बनी जनने को,
सृष्टि की टकसाल कहाँ रुकती है?

बेटे के जनम के मानी क्या?
यह कोई शहीद की माता ही बता सकती है।“

यह कल बोली मुझसे शहीद करीम की माँ
शहीद करीम जो कि गाँव के रिश्ते में मेरा चाचा था,

क्योंकि वह जमाना था, जमाना जब
हिन्दू ताजिए में कंधे लगाते थे,
होली में मुसलमान दाढ़ी रँगाते थे,
राम करते थे हसन-हुसेन, रहीम आल्हा गाते थे।

एक ही इज्जत सबकी थी
वह भी मधु लपेटी थी।
एक की बहू, बेटी सबकी बहू-बेटी थी।
खड़ी है सामने मेरे शहीद करीम की माँ
तुम कहोगे, एक मुसलमान की माँ।
सफेद वस्त्र पहने, उसी की तरह पाक
सच है, वह पूरे हिन्दुस्तान की माँ

जिसको थोड़ा भी होता है विवेक
वे जानते हैं कि सब माँओं की होती है जाति एक।
हिन्दू-मुसलमान, सिक्ख-ईसाई, गोरे-काले
माँ को केवल माँ समझने वाले,

भारतमाता का मान करते हैं।
वे ही देश की खातिर
समय पर मरते हैं।

शहीद की माँ का चेहरा एक दर्पण है,
जिसमें झाँकता सारे देश का तन-मन है।

साफ-साफ देखता हूँ ढाई दशकों का इतिहास
स्वतन्त्रता की रजत जयन्ती का फीका उल्लास।
यह उल्लास जैसे किसी बुढ़िया की गुड़गुड़ी के चिलम की आग,
जो दम लेने से जाती हो जाग।
मुँह हटा लेने से हो जाती है निस्तेज,
जैसे असहयोग-आन्दोलनों से हमारे पंगु हो गये थे अंग्रेज।

ढाई दशाब्दी स्वतन्त्रता की संघर्षों-भरी है,
जो कि निश्चय ही उन्नतियों की सीढ़ियाँ चढ़ी हैं।
अपनी आन-बान-शान के लिए,
अपने देश के सम्मान के लिए,
दुश्मनों से फौलादी फौजे़ हमारी लड़ी हैं।

लड़े हैं हम अमीरी से, गरीबी से।
बाढ़ और सूखे की बदनसीबी से।

लेकिन न अपने-आप से लड़े हैं हम।
स्वार्थ के घेरे में ज्यों-के-त्यों खड़े हैं हम।

गुलगुले गद्दों पर फिसल रही है नेतागिरी।
मुखौटे लगाकर अधिकांश नेता दिखा रहे हैं जनता को बाजीगरी।
और अफसर?
कहते नहीं थकते-येस सर, येस सर!
सरकार की नीतियों में रात-दिन टूटते-ढलते हैं।
तो न्याय के तराजू पर उछलकर चढ़ जाता है नेता का पुछल्ला।
अनकही नहीं करने पर, करता है, पटना-दिल्ली में हल्ला।
स्थानान्तरण का भय दिखाकर खा जाता है रिलीफ का गल्ला।
मन्त्री भी क्या करे, कहाँ-कहाँ मरे।
पहले तो टिकट के लिए दौड़ा-दौड़ा फिरा।
फिर वोट की मुसीबतों में घिरा।
गुण्डों-मुस्टण्डों को दिये पैसे-
लगा दो मुहर मेरे नाम पर जैसे-तैसे।
फिर मन्त्री बनने के लिए क्या-क्या न किया।
दिल दिया, ईमान दिया, मान दिया।
फिर खींचती रही सोंधी गन्ध पोर्ट-फोलियों की
तीन तरह की गन्ध होती है मालपुए की विभागों के-
तेल की, डालडा की, घी की।

ढाई दशाब्दियों की आजादी और हम शिक्षक?
कुछ तो किताब पढ़-पढ़ मरे।
कुछ राजनीति की डोर पकड़ ऊपर चढ़े।
कुछ ने पढ़ाने के अलावा किए सब काम।
दम मारने में, बम मारने में या भाषण झाड़ने में किया नाम।

और परीक्षा-भवन?
छात्रों ने बना दिये दंगल।
शौचालयों में मल-स्थान पर उगे पुस्तकों के जंगल।
इंजीनियरों ने मिट्टी में बालू फेंटी,
डॉक्टरों ने देखकर प्राइवेट ट्यूटर को बीमार
जाँच कर श्रद्धा से, पेन्सीलिन की जगह दी इन्सूलिन की सुई,
घटना जो होनी थी, हुई।
छात्रावासों में कलमधर की जगह लट्ठधर आए।
फूलों पर तितलियों की जगह विषधर आए।
ढाई दशाब्दियों की यह स्वतन्त्रता,
मिलावट की कला में निष्णात।
बस एक ही चीज शुद्ध रही, तेजपात।

आयकर वाले उन्हें नोचते हैं जो शुद्ध वेतन-भोगी हैं।
पूँजीपतियों के लिए वे आँख मूँदे योगी हैं।
‘डाल दो बाबा की झोली में जो डालनी हो
यदि उन्हें अपनी टोपी नहीं उछालनी हो।’

ढाई दशाब्दियों की यह वेला-प्रसन्न हूँ कि देशवासी महान् से महत्तर हो रहे हैं।
दुखी हूँ कि आज भी अर्द्ध-नग्न, निर्वसन क्षुधार्त्त- जन रो रहे हैं।
दुखी हूँ कि भूल गये हैं लोग उन्हें जिनके रक्त से देश का अरुणोदय हुआ।
गुलाम मरे, स्वतन्त्र जन्म-खण्ड प्रलय हुआ।
मानता हूँ, देशभक्तों की बनाई जा रही है सूची,
सिंहों के बनाये जा रहे हैं लेहरें।
उन्हें ताम्र-पत्र और पुरस्कार दिये जा रहे हैं,
मान गया शासक नहीं हैं बहरे।

अरे कुछ ऐसा करें सब लोग कि शहीद की माँ
बनने की ललक सुहाग-रात में हर स्त्री में समा जाए,
हर एक जवानी कफ़न की माला पहने गरब से इठलाए।

भाव की सरिता में चला बहता मैं।
पता नहीं कि और क्या-क्या कहता मैं!

देखा कि चुपके वह शहीद करीम की माँ
मजार पर बेटे के जा झुकी ऐसे-
जैसे कि नन्हें बालक को चूमने को माता झुकी हो,
जैसे कि पूनम का चाँद किसी समुद्र के कोर पर झुक गया हो।
एक माँ का बेटे की कब्र पर झुकना,
जैसे अतीत चलने लगा हो,
भविष्य रुक गया हो।

(19.8.72)