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स्वप्न-मीत / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र

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जिन सपनों की मैंने प्रतीक्षा की
जीवन का एक सुन्दरतम स्वप्न
वह मिला भी मुझे, एक बार
पर यह मिलना भी कैसा मिलना
औपचारिकताओं और दूरियों के मध्य
मैं आगे बढ़कर ह्रदय से न लगा सका
और वह अनकही कह न सके।

एक पल को ऐसा विश्वास नहीं हुआ
कितना प्रतीक्षा-रत रहा मैं
इस स्वप्न से मिलने को।
मेरी प्यास, तुम्हारी खोज अब भी है
कितना आनंद ! कितना प्रेम?
मेरी आत्मा में जो बसता है
हर पल जो सृजन करता है
मिलन के अद्भुत संयोग
कितनी ही मनमोहक बातें !
पर साक्षात् मिलन की प्यास
आशा का अंत असम्भव है।

स्वप्नों में मिलना पर्याप्त नहीं
मेरे ह्रदय को शांति नहीं मिलती
विरह की यह पीड़ा है
कभी तो आ जाओ कुछ पल के लिए
महसूस कर सकूँ साँसों के प्रवाह को
अब और प्रतीक्षा शायद न हो पाए
जीवन को सहेजने के लिए
स्वप्न ने कहा -
तुम्हारा मिलन इस जीवन के पार है।

क्या यही नियति है?