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स्वप्न-शेष / भवानीप्रसाद मिश्र
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सपनों का क्या करो
कहाँ तक मरो
इनके पीछे
कहाँ-कहाँ तक
खिंचो
इनके खींचे
कई बार लगता है
लो
यह आ गया हाथ में
आँख खोलता हूँ
तो बदल जाता है दिन
रात में !