स्वप्न के लोक में / डी.एम.मिश्र
स्वप्न के लोक में पास तुम आ गयीं
एक पल ही सही उम्र तो जी लिए।
मखमली सेज पर वस्त्र की ओट से
प्राण देखा तुम्हें साध हर कोण से,
देख तुमको जगी स्वर्ग की कल्पना
सुगबुगाई हृदय में प्रथम कामना,
वृत्त दो भाग में जो बँटा था कभी
यूँ लगा,फिर जुड़ा चाहता है अभी,
दूर होंगे न अब, एक निर्णय लिए
शून्य थीं, अंक में सब समर्पित किए।
साज -श्रृंगार से तन सजाये हुए
निधि हमारे लिए सब बचाये हुए,
श्वास की बह रही थी नदी मौज में
तिर रहा एक था दीप इस सोच में,
हम कहाँ से दरस का मुहूरत करें
स्नेह की गंध से भावना को भरें,
हाथ भी सोचकर यह तनिक रुक गये
तुम मिलीं सिद्धि -सी और क्या चाहिए।
रेंगती उँगलियाँ सिहरते तन युगल
कौंधती बिजलियाँ सुलगते मन तरल,
पाँव से भाल तक गुदगुदाता रहा
प्यार के अक्षरों को बनाता रहा,
केश में थे जड़े चुम्बनों के सुमन
जिस तरह तारकों से भरा हो गगन,
जिंदगी में कहीं अब अँधेरा न था
यूँ लगा, जल उठे हैं हजारों दिए।
वक्ष पर शीश आँचल कहीं था उड़ा
विश्व देखा प्रथम बार इतना बड़ा,
खेा गये हम कहाँ घूमते-घूमते
क्षीर के सिन्धु में डूबते -डूबते,
साथ देती रहीं पर, ये कहती रहीं
हो गया अब बहुत अब नहीं, अब नहीं,
देह -श्री में भरी थी सुधा रूप की
कुछ नयन से पिये, कुछ अधर से पिए।
होंठ तो थे सिले बात आगे बढ़ी
कुछ गगन जब झुका, कुछ धरा भी उठी,
जब कली बावरी के खुले मधु अधर
मस्त होकर भ्रमर ने लगायी मुहर,
फिर नहीं ज्ञात, कब, क्या हुआ किस तरह
स्वप्न साकार था कल्पना की जगह,
पर, अचानक तभी नींद से जग गये
रेशमी डोर से छूटकर गिर गए।