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स्वप्न टूटते रहे / नईम
Kavita Kosh से
स्वप्न टूटते रहे सिरे से
नींद उचटती रही रात-भर।
आसमान गिरने के भय से
पड़ी चीखती रही टिटहरी,
रोक न पाई करुण भयावह
स्वर-लिपि को निस्संग मसहरी;
नींद बदलती रही करवटें
आँख फड़कती रही रात-भर।
आँखों देखी से क्या कम सच
करुण व्यथा जाग्रत कानों की!
यूँ तो बहुत आदमी देखे,
कमी खली पर इंसानों की!
महसूसी कासों से दूरी,
सोए थे जो पास हाथ-भर।
दिन को तरह न दे पाता मैं
स्याह रात कटने से पहले-
अंदेशे भी ठोस हकीकत
अघटित से घटने के पहले।
बिजली स्याह घटाओं वाली
आज कड़कती रही रात-भर,
स्वप्न टूटते रहे सिरे से
नींद उचटती रही रात-भर।