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स्वप्न या उससे बाहर / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
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वह मेरी नन्‍हीं हथेलियों की पहुंच से बाहर था
मानो कि बचपन का वर्जित फल
वह लेकिन अपनी ध्‍वनि सहित
मां के गुनगुन करते लोकगीत में उपस्थित रहा
खूब चमकदार और मधुरिमा लिए

कभी-कभार जब पिता रिसाते
मां कनखियों से देखती गाती-टहोकती
'हमरी बलम से ऐसी गिरी
हमरी कतरी सुपारी न खाएं'

दिलचस्‍प यह था कि लोकगीत में वह हर जगह था
अपने नाम से बाहर
बस उसकी ध्‍वनि थी जो छनकर
मेरे कानों में आती रही सालों-साल

जब मैं हुआ कुछ समझदार संभालने लायक
वह आया मेरे नन्‍हें हाथों में लगा अपनी स्‍थापित छवि से जुदा
सुपारी काटने के अलावा उसके कई उपयोग थे
मसलन वह मां के लिए हरीरे की सामग्री काटने की वस्‍तु था
जो पुरा-परौस की गर्भस्‍थ महिलाओं के कहने पर
वह खूबसूरती से काम में लाती थी
लोगों का मानना था मां पावभर सामग्री को
सेर भर की तरह काटकर दिखा सकती थी

पिता ब्‍लेड के न होने पर अपनी पेंसिल
यहां तक उससे नाखून काटना शुरू कर देते थे और
शुरू हो जाती थी मां की हाय-तौबा
वह इसे अपशकुन मानती थी

भाई के लिए वह पतंग की किमची तराशने का औजार था
और कभी पिछवाड़े से बबूल की दातौन काट लाने का
अब भी वह कभी-कभार टूथपेस्‍ट के विरूद्ध
उसका बखूबी इस्‍तेमाल करता रहता है
मां की अपनी दोस्‍त जब कभी आतीं
चाय-पानी के बाद उसे ढूंढा जाता और
सुपारी के कईं फाल एक लय में कटते
ठीक वैसे जैसे लोकगीत में आती ध्‍वनि से मैंने अबेरे

वह अब जैसे विरासत में मिली दुर्लभ पूंजी है
मां का लोकगीत
पिता की स्‍मृति
और भाई की जगह बेटे के लिए पतंग की किमची तराशने का और
सब कुछ जैसे एक क्रम में रूपांतरण
उसकी जगह कम होने की जगह कुछ और बढ़ी
मां की जगह पत्‍नी अब उस लय में भीगी
काटती है दिन में कई दफे सुपारी
और आश्‍चर्य वैसे ही हरीरे की सामग्री

अब जबकि कभी भी अगली सदी में छलांग संभव
खत्‍म हुए वीरान इलाके जैसे-जंगल, पहाड़, भुतही इमारत
समृति में किस्‍से भर बचे रहने के बावजूद
स्‍क्रीन पर जब कभी उभरते हैं हिंसा और भय-आतंक
बच्‍चे सोने के पहले ढूंढते हैं उसे और
रख लेते हैं जतन से सिरहाने सपनों के विरूद्ध

जानते बूझते कि झूठ है सब यह
मैं खुद रखता हूं बचा अंतिम उपेक्षित चुपचाप
न उसमें कोई धार, न चमक, न ही भरोसा
इतना तो अब भी है लेकिन कि अगर हो जाए सामना
स्‍वप्‍न या उससे बाहर
कहा जाएगा कि विरासत के लिए लड़ते-लड़ते मरा कोई