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स्वार्थ में हर कोई मुब्तला रह गया / रंजना वर्मा
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स्वार्थ में हर कोई मुब्तला रह गया
अब न कोई किसी का सगा रह गया
सज रही है जमीं खूब सिंगार कर
आसमाँ दूर से देखता रह गया
दुश्मनी मिट गयी दोस्ती भी हुई
पर दिलों में बना फ़ासला रह गया
गिर्द अपने दिवारें उठाते रहे
अब किसी से न कुछ वास्ता रह गया
ख़्वाब में जो बनाया था इक आशियाँ
आँख खोली तो बस झोंपड़ा रह गया
रूठना है सुहाता तुम्हें इस क़दर
हम मनायें यही सिलसिला रह गया
लिख रही है कलम कह रही है जुबां
दर्द फिर भी मेरा अनकहा रह गया