भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वावलंब / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मैं बुझते दीपक का न कभी
धूमिल नीरव उच्‍छ्‍वास बना !

जीवन के कितने ही भ्रम में,
भूला न कभी अपने क्रम में,
मैं तो अविरल बहने वाली
सरिता के उर की साँस बना !

मैं अपना ख़ुद पतवार बना,
मैं अपना ख़ुद आधार बना,
निज की निर्भरता पर रखता
अविचल जीवित विश्वास घना !
1945