स्वीकारोक्ति / सपना भट्ट
एक दिन रक्त मांस अस्थि से नहीं
बल्कि मर्यादा से बंधी
मेरी इस देह को छोड़ देंगे प्राण।
एक दिन छूट जाएँगे श्वास के सब बन्ध
और लाज की सब डोरियाँ
रीतियों उपदेशों और लोकाचारों से दबी
मेरी छाती से हट जाएगा
यह क्रूर कठिन पत्थर एक दिन।
मेरी आत्मा देह-अदेह के चक्रव्यूह से छूटकर
कई-कई प्रकाश वर्षों की अलंघ्य दूरी पर
करती रहेगी अपनी ही परिक्रमा अंतरिक्ष में।
एक दिन मेरे नहीं होने से
मिट जाएंगी मेरी मर्मान्तक पीड़ाएँ।
और निश्छल चाहनाएँ भी।
एक दिन मेरी आंखें प्रतीक्षा से
और हृदय अकुंठ आदिम प्यास से मुक्त हो जाएगा।
मेरी अकथ पीर बह जाएगी
यह अंतिम दुःख,
मेरी मृत आसक्तियों की तरह यहीं छूट जाएगा।
स्त्री होना और प्रेम व सम्मान की इच्छा रखना यहाँ
अपराध की तरह देखा जाता है।
मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूँ।
और यह भी कि
जब मैं नहीं रहूँगी तब भी
मेरे अतृप्त और खाली अन्तस् की उदास प्रार्थनाओं में,
एक स्त्री होकर सुखी रह सकने की कामनाएँ रहेंगी।