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स्वेदगंगा - 2 / विंदा करंदीकर / रेखा देशपाण्डे

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स्वेद की गंगा, अविरल गंगा
हाँफती हुई, बहती गंगा
अनन्त से है अनन्त की तरफ़ ।

चट्टानों पर सिर पटकती
गिरि-कन्दराओं को तोड़ती-फोड़ती
खाई-खाई पर कूदती-फाँदती ।

स्वेद की गंगा, अविरल गंगा
देश, धर्म, और रक्त के सारे
तोड़ती बाँध, काटती धारे
भिगोती मिट्टी काली-गोरी
दौड़ रही दुनिया को लेकर
जीवन नैया नाचे जिसपर ।

स्वेद की गंगा, अविरल गंगा
रात-दुपहरी, साँझ-सकारे
जाड़े हों या धूप के पहरे
बहती थी, बहती रहती है
उफनती नागिन जैसी
जो भी कुचले उसको डसती ।

स्वेद की गंगा, अविरल गंगा
खेतों में चलते हल के पीछे
मिलों और मशीनों के पीछे
खदानों और कटारों में
बेलौस चली है कगारों से
हर नाम मिटाती, निशां मिटाती ।

स्वेद की गंगा, अविरल गंगा
पहाड़ तोड़ती, खाई भरती
समतल करती सारी धरती,
युगों-युगों से दिशा बदलती
सँजोती परमेच्छा विकास की
और जुल्मी राज को धूल में मिलाती ।

स्वेद की गंगा, अविरल गंगा
काला पानी, लाल मिट्टी
गीत क्रान्ति के गाती चलती
कई मुखों और कई दिशाओं
तलाशती सागर संघटना का
नवयुग का और स्वतन्त्रता का ।

मराठी भाषा से अनुवाद : रेखा देशपाण्डे