स्वेदगंगा : पुजारी / विंदा करंदीकर / रेखा देशपाण्डे
गंगा के तट पर ये सारे
स्वार्थ के क्षेत्र रचाने वाले
देवपुजारी जमा हो गए
लाभ-लोभ के मन्त्र-जाप से
ऐयाशी की मूर्ति पूजने ।
रहे प्रसन्न सदा ये देवी
अपने ही को केवल वरती
इसी हेतु अभिषेक-अर्थ ये
देवपुजारी स्वेद नदी से
स्वेद बिन्दु की भरते गगरी ।
ऐयाशी के बाग़ सींचने
स्वेद बिन्दु ना तन-मन देंगे
यही सोच कर बाँध बनाने
स्वेदबिन्दु से कहे पुजारी
'या तो आएँ या मर जाएँ ।'
स्वेद की यह समाजगंगा
इसी तरह से बहती धारा
बाँध किसलिए बनवाएँ ये ?
बाँध नहीं, तो भोंदू जन हे !
स्वार्थ की गगरी भरें तो कैसे ?
पल-पल बढ़ता जाता है जल
पल-पल बढ़ता जाता है, बल
व्यर्थ बनाते बाँध तटों पर
जितने भी बनवाओगे तुम
टूटेंगे, बह जाएँगे सब ।
अरे पुजारी , छोड़ो भी भ्रम
घिरे हुए हो पानी में तुम
मन्दिर के संग डूबोगे तुम
तुम्हरी धरती में तुम्हें गाड़कर
स्वेदनदी आगे बढ़ जाए ।
व्यर्थ तुम्हारे बाँध ये सारे
स्वेदनदी उल्टी ना घूमे
तेज़ दौड़ती बढ़ती आगे
रोकेंगे जो, उनके मुर्दे
लिए समेटे, आगे भागे ।
पवित्र यह गंगाजल सारा
देवी पर तुम न कभी चढ़ाना
देवी से भी पावनतर
मानव पर तुम इसे चढ़ाना
और पूजना समाज शंकर ।
मराठी भाषा से अनुवाद : रेखा देशपाण्डे