भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्‍वर्ण मृग / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं तो सोने का हिरन लूंगी - सोने का हिरन ।
मैं तो परियों के देस
बना जोगिन का भेस
गई मिलने पिया से
मेरे नयन पियासे
मेरी प्यासी चितवन
मैं तो सोने का हिरन लूंगी - सोने का हिरन ।

बड़ा चपल कुरंग
नाचे जैसे अरधंग
चले टेढ़ी-मेढ़ी चाल
फंसा किरनों के जाल
मैं हूं चांदी की किरन
मैं तो सोने का हिरन लूंगी - सोने का हिरन ...

वहां चांदनी के देस
दुख ताप ना कलेस
बिना पिया की नवेली
हुई निपट अकेली
बान बिंधा मेरा मन
मैं तो सोने का हिरन लूंगी - सोने का हिरन ।

तू ही माया की मरीचिका
तू माया का मिरग
बाज सा तेरा वियोग
मैं हूं कातर विहंग
मेरे हवाओं के पंख
मेरी बांकी है उड़न
मैं तो सोने का हिरन लूंगी सोने का हिरन ।

दुख-सुख की कहानी
मेरी रही अनजानी
कैसे व्यक्त करे बानी
ऐसी तेज है रवानी
उड़ें बान सनासन
मैं तो सोने का हिरन लूंगी - सोने का हिरन ।

लूंगी हवा का प्रवाह
और सागर अथाह
और बादलों का खेल
लूंगी वज्र को भी झेल
लूंगी सिंह की दहाड़
और रत्न का पहाड़
लूंगी हरे-हरे वन
लूंगी सृष्टि की तपन
और लूंगी मैं वसंत
सारा कम्पित दिगन्त
और लूंगी तेरा मन
मैं तो सोने का हिरन लूंगी सोने का हिरन ।