भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हँसता है विध्वंस धरणि पर / बलबीर सिंह 'रंग'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हँसता है विध्वंस धरणि पर, अम्बर में निर्माण रो रहा।

कल की पराधीनता ही तो आज मुक्ति का मंत्र हो गई,
देश हुआ स्वाधीन देश की राजनीति परतंत्र हो गई,
भस्मासुर के बाहुपाश में शंकर का वरदान रो रहा।
हँसता है विध्वंस धरणि पर, अम्बर में निर्माण रो रहा।

मुक्त गगनगामी विहगों की प्रलयंकारी प्रगति मंद है,
चाँदी के कारागारों में सोने का संसार बंद है,
अमर शहीदों की समाधि पर वीरोचित बलिदान रो रहा।
हँसता है विध्वंस धरणि पर, अम्बर में निर्माण रो रहा।

स्वार्थ रक्त से अनुरंजित है आज महीतल की हरियाली
पुण्य प्रभात पड़ रहा पीला सन्ध्या के गालों पर लाली
पतन मुसकराता पश्चिम का, प्राची का उत्थान रो रहा।
हँसता है विध्वंस धरणि पर, अम्बर में निर्माण रो रहा।