हँसना रोने जैसा / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
स्मृतियाँ लौटती हैं बार-बार
पूर्वाभास/मृतकों की तरह
इस जमीं बर्फ का क्या करें?
रोना हँसने जैसा
हँसना रोने जैसा लगे
कब तक देखते रहेंगे?
बहाते रहेंगे आँसू?
क्यों लौट जाना चाहते हैं
भूतकाल या भविष्य में?
क्यों नहीं छोड़ना चाहते
बहती नदी में नाव
हर बार चप्पू चलाये
क्या कहीं पहुँच पाये?
बस एक जिद है
इस ब्रह्मांड को समझने की
बार-बार एक्सरे देखता है
बीमारी कहाँ पकड़ में आती है
भावनाएँ तो भाप बन जाती है
बंजर धरती, खारा पानी
तुम फसल की आस लगाये हो
बहने दो,
बहने दो
नाव को नदी में बहने दो
जहाँ भी, जैसे भी
बहती है बहने दो
अपने सामर्थ्य को
अपने पास ही रहने दे
नाव कहाँ सागर बन पायेगी
नदी जो उसमें समायेगी।
एक कण
जीवन क्षण-क्षण
जुगनू की रोशनी-सा
कितना पीछे जा पाओगे
कितना आगे जा पाओगे
गोल है धरा और ब्रह्मांड भी
लौटोगे वहीं
जब तक पराक्र में हो
स्मृतियों में हो
निकल जाओ छिटककर
नष्ट कर दो स्मृतियों की नाव
स्वतंत्र होने के लिए
मध्यम मार्ग कोई नहीं
जो घर फँके अपना
चले कबीर के साथ।