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हँसा सतपुड़ा / कुमार रवींद्र

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सागर पैठा नदी-धार में
जैसे ही दिन मुड़ा
              हँसा सतपुड़ा

हुआ सुनहरा जल
सोनलाईं चट्टानें भी
फैलीं घाटी में
परबत की मुस्कानें भी

उधर नाव में
युवा मछेरिन हाथ रही है छुड़ा
                       हँसा सतपुड़ा

बिजुरी-सी कौंधी
झरने में साँझ नहाई
ऊपर वन में
वंशीधुन दी तभी सुनाई

आदिम सपने जगे अचानक
हिया गया है जुड़ा
                   हँसा सतपुड़ा

हुआ रास-क्षण
सारी ही साँसें सँवलाईं
नदी-धार पर उतरी
जंगल की परछाईं

दिन-भर की पगली इच्छाएँ
भागीं बंधन तुड़ा
                हँसा सतपुड़ा