भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हँस के सागर पार जब हम कर गए / अशोक रावत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हँस के सागर पार जब हम कर गए,
हौसले तूफ़ान के ख़ुद मर गए.

एक बस ईमान को अपना लिया,
रूह तक हम रौशनी से भर गए.

उड़ने की कोशिश कभी की ही नहीं
सीढ़ियाँ चढ़ते हुये ऊपर गए.

आधियों को ये लगा डरते हैं पेड़,
ख़ुश्क पत्ते क्या हवा से झर गए.

डर गए वो, देहरी तक उनकी जब,
उनके ही फेंके हुये पत्थर गए.

हमको दुनिया ने तभी पहचान दी,
जब हदों को तोड़ कर बाहर गए.

रह गए खंजर बहुत पीछे कहीं,
आसमाँ तक दोस्ती के स्वर गए.
 
ज़िंदगी ने जब हमें आवाज़ दी,
चाहे जितनी दूर हों, मुड़कर गए.

पूरे मन से की जिन्होंने साधना,
एक दिन वो संकटों से तर गए.