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हंसध्वनि सुन रहा हूँ / नीलमणि फूकन / दिनकर कुमार

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             हंसध्वनि सुन रहा हूँ
     सुबह हुई है या रात हुई है
मेरे हाथों की उंगलियों में पर्णांग उगे हैं

मैंने ख़ुद को गंवा दिया है
तुम ख़ुद को तलाश रहे हो
कहीं ठिठका हुआ हूँ क्या
या जा रहा हूँ
आकाश पाताल अन्धकार प्रकाश
एकाकार हो गए हैं ।
  
                हंसध्वनि सुन रहा हूँ
काफ़ी अरसे बाद
         इस बारिश में भीग रहा हूँ
   कालिदास के साथ सर्मन्वती नदी में उतरा हूँ
लहूलुहान छायामूर्त्तियों ने
           शरीर धारण किया है
सैकड़ों हज़ारों हाथों ने
     शून्य में बढ़कर
                ब्रह्माण्ड को थामा है ।

                हंसध्वनि सुन रहा हूँ
      अपनी सांस में ही हरी हवा का
   एक झोंका भरता हूँ
मेरे अन्दर से मुझे पुकारा गया है ।

                हंसध्वनि सुन रहा हूँ
       शाम हुई है या सुबह हुई है
   मेरे समूचे बदन में
                 पर्णांग उग आए हैं ।

मूल असमिया से अनुवाद : दिनकर कुमार