हंसनामा / नज़ीर अकबराबादी
दुनियां की जो उल्फ़त का हुआ उसको सहारा।
और उसने खु़शी को मेरी ख़ातिर में उतारा॥
देखी जो यह गफ़लत तो मेरा दिल यह पुकारा।
आया था किसी शहर से एक हंस बिचारा॥
एक पेड़ पै जंगल के हुआ उसका गुज़ारा॥
चंडूल, अग़न, अबलके झप्पान बने ढैयर।
मीना व बये किलेकिले, बगले भी समनबर<ref>सफे़द रंग के</ref>।
तोते भी कई तौर के, टुइयाँ कोई लहबर।
रहते थे बहुत जानवर उस पेड़ के ऊपर॥
उसने भी किसी शाख़ पै घर अपना संवारा॥2॥
बुलबुल ने किया उसकी मुहब्बत में खु़श आहंग।
और कोकिले कोयल ने भी उल्फ़त को लिया संग॥
खंजन में कुलंगों में भी चाहत की मची जंग॥
देखा जो तयूरों ने उसे हुस्न में खुश रंग॥
वह हंस लगा सबकी निगाहों मंे पियारा॥3॥
सीमुर्ग<ref>क़ाफ़ पर्वत पर रहने वाला बड़ा पक्षी</ref> भी सौ दिल से हुए मिलने के शायक़।
गुढ़ पंख भी पंखों के हुए झलने के लायक़॥
सारस भी, हवासिल भी हुए उसके मुआफ़िक़।
बाज़ लगड़ व जर्रओ शाहीं हुए आशिक़॥
शिकरों ने भी शक्कर से किया उसका मुदारा<ref>सम्मान</ref>॥4॥
कुछ सब्ज़को बड़नक्के व कुछ टनटनो बर्रे।
पिडंख़ी से लगा टोबड़ों कु़मरी व हरीवे॥
गुगाई बगेरी ब लटूरे व पपीहे।
कुछ लाल चिड़े पोदने पिद्दे ही न ग़श थे॥
पिदड़ी भी समझती थी उसे आंख का तारा॥5॥
चाहत के गिरफ्तार बटेरें लवें तीतर।
कुबकों के तदरुओं के भी चाहत में बंधे पर॥
हुदहुद भी हुए हित के बढ़ैया इधर उधर।
जाग़ो<ref>कौआ</ref> ज़ग़न<ref>चील</ref> व तूतिओ ताऊसो<ref>मोर</ref> कबूतर॥
सब कर ने लगे उसकी मुहब्बत का इशारा<ref>संकेत</ref>॥7॥
शक्ल उसकी वहीं जी में खपी शामचिड़े के।
दी चाह जता फिर उसे झांपू ने भी झप से॥
हरियल भी हुए उसके बड़े चाहने वाले।
जितने ग़रज उस पेड़ पै रहते थे परिन्दे॥
उस हंस पर उन सबने दिलो जान को वारा॥8॥
ख़्वाहिश<ref>इच्छा</ref> यह हुई सबकी कि हर दम उसे देखें।
और उसकी मुहब्बत से ज़रा मुंह को न फेरें॥
दिन रात उसे खु़श रक्खें नित सुख उसे देवें।
सोहबत<ref>संगति</ref> जो हुई हंस की उन जानवरों में॥
यक चंद रहा खू़ब मुहब्बत का गुज़ारा॥8॥
सब होके खु़श उस की मये उल्फ़त<ref>प्रेम मदिरा</ref> लगे पीने।
और प्रीत से हर एक ने वहां भर लिए सीने॥
हर आन जताने लगे चाहत के क़रीने<ref>ढंग</ref>।
उस हंस को जब हो गये दो चार महीने॥
एक रोज़ वह यारों की तरफ़ देख पुकारा॥8॥
यां लुत्फ़ो करम<ref>कृपा</ref> तुमने किये हम पै हैं जो जो।
तुम सबकी यह खू़बी है कहां हमसे बयां हो॥
तक़सीर<ref>ख़ता, भूल</ref> कोई हम से हुई होवे तो बख़्शो।
लो, यारो, हम अब जावेंगे कल अपने वतन को॥
अब तुमको मुबारक रहे यह पेड़ तुम्हारा॥9॥
अब तक तो बहुत हम रहे फु़र्सत से हम आग़ोश।
अब यादे वतन दिल की हमारे हुई हमदोश<ref>साथी, सहयोगी</ref>॥
जब हर्फ़ेजुदाई<ref>वियोग-शब्द</ref> का परिन्दों ने किया गोश<ref>सुनना, कान</ref>।
इस बात के सुनते ही जो हर इक के उड़े होश॥
सब बोले यह फुर्क़त<ref>वियोग</ref> तो नहीं हमको गवारा॥10॥
बिन देखे तुम्हारे हमें कब चैन पड़ेंगे।
एक आन न देखेंगे तो दिल ग़म से भरेंगे॥
गर तुमने यह ठहराई तो क्या सुख से रहेंगे।
हम जितने हैं सब साथ तुम्हारे ही चलेंगे॥
यह दर्द तो अब हमसे न जावेगा सहारा॥11॥
फिर हंस ने यह बात कही उनसे कई बार।
कुछ बस नहीं, अब चलने की साअ़त से हैं नाचार॥
आंखें हुईं अश्कों से परिन्दों की गुहरबार<ref>मोती बरसाना, आँसू बहाना</ref>।
उसमें जो शवे कूच की हुई सुबह नमूदार<ref>प्रकट</ref>॥
पर अपना हवा पर वहीं उस हंस ने मारा॥12॥
वह हंस जब उस पेड़ से वां को चला नागाह<ref>अचानक</ref>।
मंुह फेर के इधर से वतन की जों ही ली राह॥
देखा जो उसे जाते हुए वां से तो कर आह।
सब साथ चले उस के वह हमराज<ref>मित्र</ref> हवा ख़्वाह॥
हर एक ने उड़ने के लिए पंख पसारा॥13॥
और हंस की उन सबको रफ़ाकत<ref>मित्रता</ref> हुइ ग़ालिब।
जब वां से चला वह तो हुई बे बसी ग़ालिब॥
उल्फ़त<ref>प्रेम</ref> थी जो फुर्क़त<ref>वियोग</ref> की वह सब पर हुई ग़ालिब।
दो कोस उड़े थे जो हुई माँदगी<ref>थकान</ref> ग़ालिब॥
फिर पर में किसी के न रहा कुव्वतोयारा<ref>शक्ति और हिम्मत</ref>॥14॥
पर उनके हुए तर जों हीं दूरी की पड़ी ओस।
रोए कि रफ़क़त की करें क्यूं कि क़दमबोस<ref>पद स्पर्श</ref>॥
थक थक के लगे गिरने तो करने लगे अफ़सोस।
कोई तीन, कोई चार, कोई पांच उड़ा कोस॥
कोई आठ, कोई नौ, कोई दस कोस में हारा॥15॥
कुछ बन न सके उनसे रफ़ीक़ी<ref>मैत्री</ref> के जो वां कार।
और इतने उड़े साथ कि कुछ होवे न इज़हार॥
जब देखी वह मुश्किल तो फिर आखि़र के तईं हार।
कोई यां रहा, कोई वां रहा, कोई होगया नाचार॥
कोई और उड़ा आगे जो था सब मैं करारा॥16॥
थी उसकी मुहव्वत की जो हर एक ने पी मै।
समझे थे बहुत दिल में वह उल्फ़त को बड़ी शै॥
जब हो गए बेबस तो फिर आखि़र यह हुई रै।
चीलें रहीं, कौए गिरे, और बाज़ भी थक गै॥
उस पहली ही मंजिल में किया सबने किनारा॥17॥
दुनिया की जो उल्फ़त है तो उसकी है यह कुछ राह।
जब शक्ल यह होवे तो भला क्यूंकि हो निर्वाह॥
नाचारी हो जिस जाँ में तो वां कीजिए क्या चाह।
सब रह गए जो साथ के साथी थे ‘नज़ीर’ आह॥
आखि़र के तईं हंस अकेला ही सिधारा॥18॥