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हक़ीक़त समझते नहीं लोग फिर भी / डी. एम. मिश्र

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हक़ीक़त समझते नहीं लोग फिर भी
घरों से निकलते नहीं लोग फिर भी

बड़ा आततायी है राजा हमारा
सही बात कहते नहीं लोग फिर भी

नहीं इंतिहा उसके जु़ल्मोसितम की
हुकूमत बदलते नहीं लोग फिर भी

पता है कि इक वोट की क्या है क़ीमत
क्यों मतदान करते नहीं लोग फिर भी

भले ख़़ुदकुशी करके जाँ अपनी दे दें
समर में उतरते नहीं लोग फिर भी

हज़ारों तरह के हैं रोड़े सफ़र में
ख़बर है, सँभलते नहीं लोग फिर भी
 
मरे भूख से कोई उनकी बला से
ग़ज़ब हैं पिघलते नहीं लोग फिर भी

जपेंगे अँधेरे में बिजली की माला
दिया एक रखते नहीं लोग फिर भी