भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हक़ ओ नाहक़ जलाना हो किसी को तो जला देना / साइल देहलवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हक़ ओ नाहक़ जलाना हो किसी को तो जला देना
कोई रोए तुम्हारे सामने तुम मुस्कुरा देना

तरद्दुद बर्क़-रेज़ों में तुम्हें करने की क्या हाजत
तुम्हें काफ़ी है हँसता देख लेना मुस्कुरा देना

दिलों पर बिजलियाँ गिरने की सूरतगर कोई पूछे
तो मैं कह दूँ तुम्हारा देख लेना मुस्कुरा देना

हुई बिजली से किस दिन नक़्ल अंदाज़-ए-सितमगारी
तुम्हारी तरह सीखा लाख उस ने मुस्कुरा देना

सितमगारी की तालीमें उन्हें दी हैं ये कह कह कर
कि रोता जिस किसी को देख लेना मुस्कुरा देना

तकल्लुफ़-बरतरफ़ क्यूँ फूल लेकर आओ तुर्बत पर
मगर जब फ़ातिहा को हाथ उठाना मुस्कुरा देना

न क्यूँ हम इंक़िलाब-ए-दहर को मानें अगर देखें
गुलों का नाला करना बुलबुलों का मुस्कुरा देना

न जाना ना-तवानी पर कि अब भी सई-ए-नाख़ुँ से
दिखा सकते हैं हम ज़ख़्म-ए-कुहन का मुस्कुरा देना

तुम्हारे नाम में क्या ज़ाफ़राँ की शाख़ है ‘साइल’
कि जो सुनता है इस को उस को सुन कर मुस्कुरा देना