भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हज़ारों वर्षों से / महेंद्रसिंह जाडेजा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन पर्वतों पर
हज़ारों वर्ष मैं
चढ़ा हूँ, उतरा हूँ ।

इन सागरों में
हज़ारों वर्ष मैं
तैरा हूँ
कभी मछली के रूप में,
कभी कंकर होकर,
कभी सीप, शंख या कौड़ी होकर
धड़का हूँ इनकी गहराइयों में ।

कभी पत्ता बनकर बह गया हूँ
इन नदियों के नीर में
हज़ारों वर्ष से ।

हज़ारों वर्ष मैं
पंख फैलाकर उड़ा हूँ
नीले-नीले आकाश में
और तपा हूँ हज़ारों वर्ष
रेगिस्तान की धधकती रेत में ।

हज़ारों वर्ष से
कण-कण में व्याप्त हूँ
और तब भी
सदियों से मैं स्वयं को खोज रहा हूँ ।

ये सूरज, चाँद और तारे
सागर, पर्वत और नदियाँ
हज़ारों वर्ष से जानते हैं कि
मैं कब, कहाँ और कैसे
खो गया हूँ
मुझे कभी कहेंगे कि.........

मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति