हड्डियाँ / नेहा नरुका
हड्डियाँ तो देखी होंगी तुमने
अरे, तुम तो युद्धस्थल से लौटे हो घायल सिपाही !
तुमने तो मरते हुए दोस्त
और सड़ते हुए दुश्मन देखे होंगे
मैंने तो सिर्फ़ गाय, कुत्ते और बकरी की हड्डी देखी है
हड्डी देखकर मन कैसा व्याकुल हो उठता है
बार-बार एक ही ख़याल आता है :
काश ! इस हड्डी पर मांस चढ़ जाए !
मैं देखना चाहती हूँ मांस चढ़ने के बाद वो हड्डी फिर कैसी दिखती होगी …
कैसे बनता होगा जीव …
चलता-बोलता जीव
सिपाही हड्डियाँ तो सभी एक जैसी दिखती हैं !
तुम अपने घावों को देखो
जिनसे बह रहा है रक्त
और मेरे अश्क़ों से इनकी तुलना करो
अपने प्रिय को हड्डी में बदलते देखना कितना कष्टदायक है घायल सिपाही !
कोई ये बात उससे पूछे जिसने अपने प्रिय को चिता की आग में जलाया हो
फिर उसकी हड्डियों को बीनकर गंगा में बहाया हो …
नदियाँ हड्डियों को पवित्र नहीं करतीं
न कोई आत्मा होती है हड्डियों में बदलने के बाद
चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिए
फिर भी गंगा मैया ढो रही है हड्डियों को
घायल सिपाही तुम न कौरव हो, न पाण्डव हो
जिसे हस्तिनापुर का सिंहासन मिलने वाला है
तुम तो एक मज़दूर के बेटे हो
तुम्हें तो मज़दूरी के लिए भी सिर फोड़कर रक्त बहाना पड़ता है
तुम त्याग दो युद्ध से प्राप्त हुई इस निर्मम महानता को
हड्डियों से भी डरावनी होती हैं ऐसी महानता की शक़्लें …