हत्यारे-1 / रामकृष्ण पांडेय
कहाँ जाएगी यह सड़क
किस जंगल, किस बियाबान की ओर
क़दम-क़दम पर जमा हुआ है
गाढ़ा-गाढ़ा ख़ून
हत्यारों का आतंक चारों ओर व्याप्त है
ठीक आपके पीछे जो चल रहा है
उसके हाथ में एक चाकू है आपके लिए
और जो लोग चल रहे हैं आपके आगे
वे अचानक ही पीछे मुड़ कर
मशीनगन का मुँह खोल सकते हैं
आपके ऊपर
तड़-तड़, तड़-तड़, तड़-तड़, तड़-तड़
आप क्या कर लेंगे
धीरे से आँखें मूंद कर सो जाएँगे
यही ना
अपनी नई कविता की आख़िरी पंक्ति सोचते हुए
या अपनी पेंटिंग में एक रंग और भरते हुए
ख़ून का गाढ़ा लाल रंग
यह सोचते हुए
कि थोड़ा-सा और सुन्दर नहीं बना पाए
इस बदरंग होती दुनिया को
बस थोड़ा सा
पर, हत्यारे
उतनी भी मोहलत नहीं दे सकते
क्योंकि वे जानते हैं
कि इतनी ही देर में उनकी वह दुनिया
बदल सकती है
पूरी हो सकती है कविता की आख़िरी पक्ति
अधूरी पेंटिंग को मिल सकता है
रंगों का आख़िरी स्पर्श
मुकम्मल हो सकता है मनुष्य
अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ
पर, हत्यारों को
कोई ख़ूबसूरत दुनिया नहीं चाहिए