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हथेलियों का कर्ज / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जिस दिन मेहंदी लगी
एक एक रंग चढ़ता गया
मन के कुंवारे
कैनवास पर
चित्रित हुई वे सारी
ठोस परते
समय जिन्हें
आश्वस्त करता रहा
कुछ देखे अनदेखे
ख्वाबों से
वजूद मेरा
सिमटने लगा
हथेली पर सजे
मेहंदी के बूटे में
मै मैं न रही
मेहंदी ने कर दिया
खुद से पराया
मिटाकर मुझे
सारी उम्र भ्रम में रही
निज को सौंपकर
मेहंदी के नाम
आज आईने में
खुद को देख चौंक पडी
मेहंदी सर चढ़कर
हथेलियों का कर्ज
वसूल रही थी
और मेरा मधुमास
विदा ले रहा था
आहिस्ता आहिस्ता
मेरी धड़कनों की
आकुल धुन में बजते रहे
उसके पदचाप
लगातार...