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हथेली बंद जालों में / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
उमर गुजरी सवालों में!
जवाबों के लिए
भटकी सदा अंधे उजालों में!
उछलता एक मृग-छौना
पकड़ने
चांद का चमका हुआ दौना
मगर वह सिर्फ बौना
और थककर फिर
झटककर सिर
हुआ है गुम खयालों में!
कंपकंपाता हाथ
उठता है
हवा में गर्जना के साथ
फिर चुप बैठ
झुंझलाकर पकड़ता माथ
खून से लथपथ
हुई आहत हथेली
बंद जालो में!
एक सहमा पांव
बढ़ता है शहर को
छोड़ अपना गांव
तपता धूप में
पाता नहीं है छांव
शाम को संत्रस्त
होता व्यस्त
रिसते मूक छालों में!