हद, बेहद दोनों लांघे जो !
एकल मैं बज-बजता रहता
थापे कोई फटी पखावज
इसका इतना आगल-पीछल
रीझे माया, सीझे काया
देखा चाहे सूरदास जो
इस हद में भी दिख-दिख जाएं-
मीड़, मुरकियों की पतवाले
निरे मलंगे अद्भुत विस्मय !
ऐसों से बताये वो ही
गांठे सांकल बांवळियों की
इस हदमाते कोरे मैं को
कीकर के खूँटे बाँधे जो !
हद, बेहद दोनों लांघे जो !
आगे बेहद का सन्नाटा,
खुद से बोल सुनो खुद को ही
यहाँ न सूरज पलकें झपके
रात न पल भर आँखें मूँदे
धाड़े तन सी हवा फिरे है
जहाँ भरी जाए हैं साँसें,
ऐसे में ही गया एक दिन
यम की ड्योढ़ी पर नचिकेता
एक बळत के पेटे लेली
सात तलों की एकल चाबी
यह चाबी लेले फिर कोई
ऐसा ही कुद हठ साधे जो !
हद-बेहद दोनों लांघे जो !
बेहद की कोसा के उठते
दीखन लागे वह उजियारा
जिसका आदि न जाने कोई
इति आगोतर से भी आगे
यह रचना का पहला आँगन
उसका दूजा नाम संसरण
प्राण यही, विज्ञान यही है
रचे इसी में अनगिन सूरज
इस अनहद में नाद गूँजते
नभ-जल-थल चारी सृष्टि के
हो जाए है वही ममेतर
हद-बेहद दोनों रागे जो !
हद, बेहद दोनों लाँघे जो !